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मई, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बात की बात

इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं जब हम अपने से ही अपनी- बीती कहने लग जाते हैं। तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है। लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ कवि की अपनी सीमायें है कहता जितना कह पाता है कितना भी कह डाले, लेकिन- अनकहा अधिक रह जाता है यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है? बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या? ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या? जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना! दौड़-धूप के बीच एक- क्षण, थम जाए तो क्या कहना! कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्वास समाया था उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी साँचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से मन की पूनी भरनी होगी जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा। - शिवमंगल सिंह ' सुमन '

गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की, याद जिससे रहे वंचित गेह की, खोजता फिरता न पाता हुआ, मेरा हृदय हारा। - सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '

आह ! वेदना मिली विदाई

आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई - जयशंकर प्रसाद

एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ? देव मेरे भाग्य में क्या है बदा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में ? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी । लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर । - अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध '

क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं?

अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! दोनो करके पछताता हूं, सोच नहीं, पर मैं पाता हूं, सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! - हरिवंश राय बच्चन

ये ज़िंदगी

ये ज़िन्दगी आज जो तुम्हारे बदन की छोटी-बड़ी नसों में मचल रही है तुम्हारे पैरों से चल रही है तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है ये ज़िन्दगी जाने कितनी सदियों से यूँ ही शक्लें बदल रही है बदलती शक्लों बदलते जिस्मों में चलता-फिरता ये इक शरारा जो इस घड़ी नाम है तुम्हारा इसी से सारी चहल-पहल है इसी से रोशन है हर नज़ारा सितारे तोड़ो या घर बसाओ क़लम उठाओ या सर झुकाओ तुम्हारी आँखों की रोशनी तक है खेल सारा ये खेल होगा नहीं दुबारा ये खेल होगा नहीं दुबारा - निदा फ़ाज़ली

मोम सा तन घुल चुका

मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। विरह के रंगीन क्षण ले, अश्रु के कुछ शेष कण ले, वरुनियों में उलझ बिखरे स्वप्न के सूखे सुमन ले, खोजने फिर शिथिल पग, निश्वास-दूत निकल चुका है! चल पलक है निर्निमेषी, कल्प पल सब तिविरवेषी, आज स्पंदन भी हुई उर के लिये अज्ञातदेशी चेतना का स्वर्ण, जलती वेदना में गल चुका है! झर चुके तारक-कुसुम जब, रश्मियों के रजत-पल्लव, सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब, पार से, अज्ञात वासन्ती, दिवस-रथ चल चुका है। खोल कर जो दीप के दृग, कह गया 'तम में बढा पग' देख श्रम-धूमिल उसे करते निशा की सांस जगमग, न आ कहता वही, 'सो, याम अंतिम ढल चुका है'! अन्तहीन विभावरी है, पास अंगारक-तरी है, तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है! शिथिल कर के सुभग सुधि- पतवार आज बिछल चुका है! अब कहो सन्देश है क्या? और ज्वाल विशेष है क्या? अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या? एक इंगित के लिये शत बार प्राण मचल चुका है! - महादेवी वर्मा

दायरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़ बसते हैं कई शहर नये रोज़ धरती में समा जाते हैं ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत न कहीं धूप न साया न सराब कितने अरमाँ है किस सहरा में कौन रखता है मज़ारों का हिसाब नफ़्ज़ बुझती भी भड़कती भी है दिल का मामूल है घबराना भी रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा इक आदत है जिये जाना भी क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ एक ही चाल भी पैमाना भी गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की कोई कहता था समंदर हूँ मैं और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ कभी क़ुरान कभी गीता की तरह चंद रेखाओं में समाऊँ मैं ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह राम कब लौटेंगे मालूम नहीं काश रावन ही कोई आ जाता - कैफ़ी आज़मी

चाँदनी छत पे चल रही होगी

चाँदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा वो बर्फ़-सी पिघल रही होगी कल का सपना बहुत सुहाना था ये उदासी न कल रही होगी सोचता हूँ कि बंद कमरे में एक शमा-सी जल रही होगी तेरे गहनों सी खनखनाती थी बाजरे की फ़सल रही होगी जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी - दुष्यंत कुमार

रात यों कहने लगा

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का आज उठता और कल फिर फूट जाता है किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो? बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है। मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी? आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ, और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ। मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है, वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे- रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे, रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे। - रामधारी सिंह ' दिनकर &#

विवशता

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था । गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था राह अनदेखी, अजाना देश संगी अनसुना था । चाँद सूरज की तरह चलता, न जाना रात दिन है किस तरह हम-तुम गए मिल, आज भी कहना कठिन है । तन न आया माँगने अभिसार मन ही मन जुड़ गया था मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था ।। देख मेरे पंख चल, गतिमय लता भी लहलहाई पत्र आँचल में छिपाए मुख- कली भी मुस्कराई । एक क्षण को थम गए डैने, समझ विश्राम का पल पर प्रबल संघर्ष बनकर, आ गई आँधी सदल-बल । डाल झूमी, पर न टूटी, किंतु पंछी उड़ गया था मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था ।। - शिवमंगल सिंह सुमन

मिटने का अधिकार

वे मुस्काते फूल नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप नहीं जिनको भाता है बुझ जाना वे सूने से नयन,नहीं जिनमें बनते आंसू मोती, वह प्राणों की सेज,नही जिसमें बेसुध पीड़ा, सोती वे नीलम के मेघ नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह ऎसा तेरा लोक, वेदना नहीं,नहीं जिसमें अवसाद, जलना जाना नहीं नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार रहने दो हे देव अरे यह मेरे मिटने क अधिकार - महादेवी वर्मा