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आ: धरती कितना देती है

इस कविता मे मेरे बचपन कि कुछ यादें छिपी हुयी हैं । मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा , बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला । सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये । मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक , बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर । मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे , ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था । अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे । कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन । औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों । मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन । किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा , उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । देखा आँग

साथी, सब कुछ सहना होगा!

मानव पर जगती का शासन, जगती पर संसृति का बंधन, संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! हम क्या हैं जगती के सर में! जगती क्या, संसृति सागर में! कि प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! आ‌ओ, अपनी लघुता जानें, अपनी निर्बलता पहचानें, जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा! साथी, सब कुछ सहना होगा! - हरिवंशराय बच्चन

क्योंकि सपना है अभी भी

...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ...क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?) किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना है धधकती आग में तपना अभी भी ....क्योंकि सपना है अभी भी! तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर वह तुम्ही हो जो टूटती तलवार की झंकार में या भीड़ की जयकार में या मौत के सुनसान हाहाकार में फिर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको फिर तड़प कर याद आता है कि सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं तुम्हारा अपना अभी भी इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ... क्योंकि सपना है अभी भी! - धर्मवीर भारती

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ, चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ। मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पर जावें वीर अनेक । -माखनलाल चतुर्वेदी
मरा हूँ हजार मरण पाई तब चरण-शरण। फैला जो तिमिर जाल कट-कटकर रहा काल, आँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण। जल-कलकल-नाद बढ़ा अन्तर्हित हर्ष कढ़ा, विश्व उसी को उमड़ा, हुए चारु-करण सरण। - सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ सब गलियाँ उसकी भी देखी

लहर

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ? जब सावन घन सघन बरसते इन आँखों की छाया भर थे सुरधनु रंजित नवजलधर से- भरे क्षितिज व्यापी अंबर से मिले चूमते जब सरिता के हरित कूल युग मधुर अधर थे प्राण पपीहे के स्वर वाली बरस रही थी जब हरियाली रस जलकन मालती मुकुल से जो मदमाते गंध विधुर थे चित्र खींचती थी जब चपला नील मेघ पट पर वह विरला मेरी जीवन स्मृति के जिसमें खिल उठते वे रूप मधुर थे - जयशंकर प्रसाद

दो-पहर

ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं [जज़ा = rewards ],[बा-जहिर = evidently ] तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं [इब्तिदा = beginning] ,[इन्तेहा = end],[मारका-ए-जान = battle for life ] [हंगाम-ए-फ़ैसला = commotion before the verdict] पयाम ज़ेर-ए-लब अब तक है सूर-ए-इसराफ़ील सुना किसी ने किसी ने अभी सुना भी नहीं किया किसी ने किसी ने यकीं किया भी नहीं उठा जमीं से कोई, कोई उठा भी नहीं [पयाम = message], [ज़ेर-ए-लब = on the lips] [सूर-ए-इसराफ़ील=according to the islamic theology,Israafil is one of the angels who would call the dead to life on the day of judgement by sounding a loud alarm. It is believed that everyone would get up from their graves and elsewhere after hearing this alarm. ] कदम कदम पर दिया है रहज़नों ने फ़रेब के अब निगाह मे तौकीर-ए-रहनुमा भी नहीं उसे समझते है मंजिल जो रास्ता भ

यह कदम्ब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।। ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली। किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।। तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता। उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।। वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता। अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।। तुम को आता देख , बाँसुरी रख,मैं चुप हो जाता । वहीं-कहीं पत्तों में छोपकर फिर बाँसुरी बजाता ।। बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता। माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।। तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे। ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।। तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता। और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।। तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती। जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।। इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे। यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।। - सुभद्राकुमारी चौहान aflatoon[alias on blogger] जी का बहुत बहुत धन्यवाद इस कृती को पूरा करने के लिए ।