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अंधेरे का दीपक

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो
तुम्हारी कब्र पर मैं फ़ातेहा पढ़ने नही आया, मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था, वो तुम कब थे? कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था । मेरी आँखे तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ वो, वही है जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी । कहीं कुछ भी नहीं बदला, तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं, मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं, तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं | बदन में मेरे जितना भी लहू है, वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है, मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है, मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम | तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है, वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है, तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो, कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना | -निदा फ़ालजी " नीरज रोहिला " जी का बहुत बहुत धन्यवाद इस कृति को पूरा करने के लिये ।

पुनः नया निर्माण करो

उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो । जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो । नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई । नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई । युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो । डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं । गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं । नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो । कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है । धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है । नूतन मंगलमयी ध्वनियों से गुँजित जग-उद्यान करो । सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है । तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है । शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आव्हान करो । उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो । -द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चाँद मद्धम है, आसमाँ चुप है नीद की गोद मे जहाँ चुप है दूर वादी में दुधीया बादल झुक के परबत को प्यार करते हैं दिल मे नाकाम हसरते लेकर हम तेरा इन्तेजार करते हैं इन बहारो के साये मे आ जा फिर मोहब्बत जवां रहे ना रहे ज़िन्दगी तेरे ना-मूरादों पर कल तक मेहरबान रहे ना रहे रोज की तरह आज भी तारे सुबह की गर्द मे ना खो जायें आ! तेरे गम मे जागती आँखे कम से कम एक रात सो जाये चाँद मद्धम है, आसमाँ चुप है नीद की गोद मे जहाँ चुप है -साहिर लुधिआनवी
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ। क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं? बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी। तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी। मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा सा और अधसोया हुआ सा। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में। इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में। मैं लगा दूँ आग इस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर। जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने के लिए था कर दिया तैयार तुमने! रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। प्रात ही की ओर को है रात चलती औ उजाले में अंधेरा डूब जाता। मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी खूबियों के साथ परदे को उठाता। एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था और मैंने था उतारा एक चेहरा। वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी खीं

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा ? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनीत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो । तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे । उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से । सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में। सच पूछो , तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की । सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। - रामधारी सिंह दिनकर
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ खनखनाता हूँ माँ के गहनों में हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में मैं ही मज़दूर के पसीने में मैं ही बरसात के महीने में मेरी तस्वीर आँख का आँसू मेरी तहरीर जिस्म का जादू मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में मुझको पहचानते नहीं जब लोग मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके आसमानों में लौट जाता हूँ मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ -निदा फ़ाज़ली
दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द कि दवा क्या है हम है मुश्ताक और वो बेज़ार [मुश्ताक( interested) = दिलचस्पी लेने वाला] [बेज़ार( sick of) = उदास,बीमार] या ईलाही! ये माजरा क्या है हम भी मुहँ मे जबान रखते हैं काश पूछो कि मुद्दा क्या है जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है ये परी-चेहरा लोग कैसे है गमज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा क्या है -मिर्जा गालिब

प्रतीक्षा

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता ? मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूम-घूम फिर - फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता ? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले, तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता ? बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती, नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता, अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता ? -हरिवंश राय बच्चन

एक कहानी

प्रस्तुत कविता http://merekavimitra.blogspot.com से ली गयी है। इस कविता ने 'हिन्द-युग्म यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता' मे प्रथम स्थान प्राप्त किया। अधिक जानकारी के लिये यहाँ click करें । उसको देखा जब भी, जिस क्षण, कृश तन , विदग्ध सा अंतर्मन; ले तड़प-तड़पकर जीता है, अपमान - हलाहल पीता है। पूछा मैनें , रे चिर- बेकल, कृश यह काया,ये नैन सजल; तू किसपर क्रोधित है भाई, जो इतनी खामोशी पाई? तू कृषक, अन्न उपजाता है, फ़िर क्यों भूखा रह जाता है? इतना उत्ताप भला कोई , किस तरह सहन कर पाता है? लख तेरी हालत, रह न सका; कुछ कहना चाहा, कह न सका। पर साहस आज जुटा पाया, जिज्ञासावश होकर आया; दे मेरे प्रश्नों का उत्तर , तज लाज़-हया का तम दुस्तर। फ़िर उसने मुझे बताया था, किस तरह कहूँ, सुन पाया था? बोला- भाई , तुम जान रहे, दुखियारा मैं , पहचान रहे। मैं भी तो जीवन जीता था, सुख से कुछ जीवन बीता था; सब यहाँ चैन से रहते थे, सुख - दुःख बाँटकर सह्ते थे। पर समय कभी क्या एक रहा? दुःख - सुख में तो हर एक रहा। मानव बस एक निशाना है, दोनों का आना जाना है। निज गृह पर विपदा आई थी, अपने संगी भी लाई थी। वह रात पड़ी मुझप

कोशिश

यह कविता मेरे मन पसंदीदा कविताओं मे से एक है । लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। -हरिवंशराय बच्चन
हमारे शौक की ये इन्तेहा थी[शौक(desire)=अभिलाषा][इन्तेहा( apex)= पराकाष्ठा] कदम रखा के मंज़िल रास्ता थी बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो[डार(abode)=डेरा][बन(forest)] हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी कभी जो ख्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी? मैं बचपन मे खिलौने तोड़ता था मेरे अन्ज़ाम की वो इब्तीदा थी[इब्तीदा( beginning)= प्रारंभ] मुहब्बत मर गयी, मुझको भी गम है मेरे अच्छे दिनो की आशना थी[आशना(friend)=मित्र] जिसे मैं छू लूं वो हो जाये सोना तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी[बद्दुआ(curse)=शाप] मरीजे-ए-ख्वाब को तो अब शफ़ा है[मरीजे-ए-ख्वाब( victim of dreams )][शफ़ा( cure)= औषधि] मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी -जावेद अख्तर

कामायनी[चिंता:भाग २]

सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे नयन भरे आलस अनुराग़, कल कपोल था जहाँ बिछलता कल्पवृक्ष का पीत पराग। विकल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये, आह जले अपनी ज्वाला से फिर वे जल में गले, गये।" "अरी उपेक्षा-भरी अमरते री अतृप्ति निबार्ध विलास द्विधा-रहित अपलक नयनों की भूख-भरी दर्शन की प्यास बिछुडे तेरे सब आलिंगन, पुलक-स्पर्श का पता नहीं, मधुमय चुंबन कातरतायें, आज न मुख को सता रहीं। रत्न-सौंध के वातायन, जिनमें आता मधु-मदिर समीर, टकराती होगी अब उनमें तिमिगिलों की भीड अधीर। देवकामिनी के नयनों से जहाँ नील नलिनों की सृष्टि होती थी, अब वहाँ हो रही प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि। वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि रचित मनोहर मालायें, बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें विलासिनी सुर-बालायें। देव-यजन के पशुयज्ञों की वह पूर्णाहुति की ज्वाला, जलनिधि में बन जलती कैसी आज लहरियों की माला।" "उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर, हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था क्रूर। दिग्दाहों से धूम उठे, या जलचर उठे क्षितिज-
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है मगर उसने मुझे चाहा बहुत है खुदा इस शहर को महफ़ूज़ रखे ये बच्चो की तरह हँसता बहुत है मैं हर लम्हे मे सदियाँ देखता हूँ तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है मेरा दिल बारिशों मे फूल जैसा ये बच्चा रात मे रोता बहुत है वो अब लाखों दिलो से खेलता है मुझे पहचान ले, इतना बहुत है -बशीर बद्र
त्रिलोचन शास्त्री जितने बड़े लेखक हैं, उससे श्रेष्ठ वक्ता हैं। हंस के समान दिन उड़ कर चला गया अभी उड़ कर चला गया पृथ्वी आकाश डूबे स्वर्ण की तरंगों में गूँजे स्वर ध्यान-हरण मन की उमंगों में बन्दी कर मन को वह खग चला गया अभी उड़ कर चला गया कोयल सी श्यामा सी रात निविड़ मौन पास आयी जैसे बँध कर बिखर रहा शिशिर-श्वास प्रिय संगी मन का वह खग चला गया अभी उड़ कर चला गया -त्रिलोचन शास्त्री

कामायनी[चिंता:भाग १]

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह | नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन | दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान. नीरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान | तरूण तपस्वी-सा बैठा साधन करता सुर-स्मशान, नीचे प्रलय लहरों का होता था सकरूण अवसान। उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े, हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े। अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार। चिता-कातर वदन हो रहा पौरष जिसमें ओत-प्रोत, उधर उपेक्षामय यौवनव का बहता भीतर मधुमय स्रोत। बँधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही, उतर चला था वह जल प्लावन, और निकलने लगी मही। निकल रही थी मर्म वेदना करूणा विकल कहानी सी, वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। "ओ चिता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली, ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली। हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला हरी-भरी-सी दौड-धूप, ओ जल-माया क

हिंदी की दुर्दशा

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा- बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा कहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी में नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी कहँ ‘ काका ' कविराय, ध्येय को भेजो लानत अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत - काका हाथरसी

जिन्दगी

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है [बसर(spent)= बिताना] रात खैरात की सदके की सहर होती है [खैरात(charity) = उदारता, उपकार][सदका(alms) = दान, भिक्षा, दयादान][ सहर(dawn) = प्रभात, भोर] सांस भरने को तो जीना नही कहते या रब दिल ही दुखता है ना अब आस्तीन तर होती है [आस्तीन(sleeve) = कपड़े की बांह] जैसे जागी हुयी आँखो मे चुभे कांच के ख्वाब रात इस तरह दिवानो की बसर होती है गम ही दुश्मन है मेरा गम ही को दिल ढूड़ता है एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है एक मरकाज़ की तलाश एक भटकती खुशबू [मरकाज़(center) = केन्द्र] कभी मंज़िल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है [तम्हीद{ prelude( आरम्भ करना) /preamble( भूमिका) } ] -मीना कुमारी(अभिनेत्री)
वो रुला कर हस ना पाया देर तक जब मैं रो कर मुस्कुराया देर तक भूलना चाहा अगर कभी उसको अगर और भी वो याद आये देर तक खुद-ब-खुद बे-साख्ता मैं हंस पडा [बे-साख्ता = स्वाभाविक, सहज] उसने इस दरजा रुलाया देर तक भूखे बच्चो की तसल्ली के लिये माँ ने पानी पकाया देर तक गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर धूप रहती है ना साया देर तक कल अंधेरी रात मे मेरी तरह एक जुगनू जगमगाया देर तक -नवाज़ देवबन्दी
विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़ अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़, ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ? एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ? क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ? पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ? -धर्मवीर भारती
सोचा नही अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नही मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नही देखा तुझे, सोचा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे मेरी खता मेरी वफ़ा तेरी खता कुछ भी नही जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर भेजा वही कागज़ उसे हमनें , लिखा कुछ भी नही इस शाम की दहलीज पर बैठे रहे वो देर तक आँखो से की बातें बहुत मुझ से कहा कुछ भी नही दो चार दिन की बात है दिल खाक मे सो जायेगा जब आग पर कागज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नही एहसास कि खुशबू कहां, आवाज़ के जुगनू कहाँ खामोश यादों के सिवा घर मे रहा कुछ भी नही -बशीर बद्र
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता ? मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ? तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूम-घूम फिर - फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता ? उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले, तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता ? बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती, नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता, अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता ? -हरिवंश राय बच्चन

मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता, जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता, नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया, कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता, कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोड़कर जिया, इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी, विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी, न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली, न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी, कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की, इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो! इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की, निदघ से उमीद की बसंत के बयार की, मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी, अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की, कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो! इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो! -हरिवंश राय बच्चन

जो तुम आ जाते एक बार !

जो तुम आ जाते एक बार ! कितनी करुणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणो का तार तार, अनुराग भरा उनमाद राग जो तुम आ जाते एक बार ! -महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला! और होंगे चरण हारे, अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे; दुखव्रती निर्माण-उन्मद यह अमरता नापते पद; बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला! दूसरी होगी कहानी शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी; आज जिसपर प्यार विस्मित, मैं लगाती चल रही नित, मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला! हास का मधु-दूत भेजो, रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो; ले मिलेगा उर अचंचल वेदना-जल स्वप्न-शतदल, जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला! - महादेवी वर्मा

आग की भीख

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है, मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है? दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे, बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ। चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ। ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ। आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है, अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है, है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है! निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है, निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है। पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ। जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ। मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है, अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं। भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं, सोती वसुन्धरा जब
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा ! शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती, प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को, कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले, अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले । यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले, मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले? खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं, साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं, पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है । अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ, तिमिर लहराता न
नज़्म उलझी हुई है सीने में मिसरे अटके हुए हैं होठों पर उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं कब से बैठा हूँ मैं जानम सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा बस तेरा नाम ही मुकम्मल है इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी -गुलज़ार

गुनाह

सब्र हर बार इख्तियार किया हम से होता नही, हज़ार किया आदतन तुमने कर लिये वादे आदतन हमने भी ऐतबार किया हमने अक्सर तुम्हारी राहों मे रुक के अपना ही इन्तज़ार किया फिर ना मांगेगे ज़िन्दगी अब ये गुनाह हमने एक बार किया -गुलज़ार

आनंद

मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको -गुलज़ार(आनंद फ़िल्म से)
वो जो आये हयात याद आयी भूली बिसरी सी बात याद आयी हाल-ए-दिल कह के जब लौटे उनसे कहने कि बात याद आयी आपने दिन बना दिया था जिसे ज़िन्दगी भर वो रात याद आयी तेरे दर से उठे हि थे कि हमें तंगी-ए-कायनात याद आयी - खुमार बाराबंकवी

अफ़साने

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने मे एक पुराना खत खोला अनज़ाने मे जाना किसका जिक्र है अफ़साने मे दर्द जब मज़े लेता है जो दुहराने मे शाम के साये बालिस्तो से नापे हैं चाँद ने कितनी देर लगा दी आने मे रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे ज़रा सी धूप दे उन्हे मेरे पैमाने में दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है किसका आहट सुनता है वीराने मे । -गुलज़ार