विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़
अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़,

ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह ?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफर कि प्यास, अबुझ, अथाह ?

क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊंघते कस्बे, पुराने पुल ?
पांव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल ?

-धर्मवीर भारती

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