एक कहानी

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उसको देखा जब भी, जिस क्षण,
कृश तन , विदग्ध सा अंतर्मन;
ले तड़प-तड़पकर जीता है,
अपमान - हलाहल पीता है।

पूछा मैनें , रे चिर- बेकल,
कृश यह काया,ये नैन सजल;
तू किसपर क्रोधित है भाई,
जो इतनी खामोशी पाई?
तू कृषक, अन्न उपजाता है,
फ़िर क्यों भूखा रह जाता है?
इतना उत्ताप भला कोई ,
किस तरह सहन कर पाता है?
लख तेरी हालत, रह न सका;
कुछ कहना चाहा,
कह न सका।
पर साहस आज जुटा पाया,
जिज्ञासावश होकर आया;
दे मेरे प्रश्नों का उत्तर ,
तज लाज़-हया का तम दुस्तर।

फ़िर उसने मुझे बताया था,
किस तरह कहूँ, सुन पाया था?

बोला- भाई , तुम जान रहे,
दुखियारा मैं , पहचान रहे।
मैं भी तो जीवन जीता था,
सुख से कुछ जीवन बीता था;
सब यहाँ चैन से रहते थे,
सुख - दुःख बाँटकर सह्ते थे।
पर समय कभी क्या एक रहा?
दुःख - सुख में तो हर एक रहा।
मानव बस एक निशाना है,
दोनों का आना जाना है।
निज गृह पर विपदा आई थी,
अपने संगी भी लाई थी।
वह रात पड़ी मुझपर भारी,
थी चोरी हुई फ़सल सारी।
सोने से गेहूँ के दानों
सी सुडौल मेरी आशायें;
दो जून पेट भरकर खाना,

टूटतीं कर्ज की बाधायें।
थी नहीं नियति को भी भाईं
मेरी खुशियाँ छोटी छोटी;
तन ढकने भर थोड़ा कपड़ा,
दो वक्त तोड़ने को रोटी।
सब महाज़नों पर बाकी था,
मुझ प्यासे हित जो साकी था;
अधरों तक आकर टूट गया,

राशन -पानी तक छूट गया।
विपदा को थी पर छूट बड़ी
अब वृषभ-द्वयों पर टूट पड़ी;
जो बाकी था , वह भी न रहा,
घर- बार, वस्त्र ,कुछ भी न रहा।
सुत - भार्या थे , जब तड़प रहे,
थे क्षुधा - कोप से बिलख रहे;


तब मुझसे अधिक रहा न गया,
उनका दुःख अधिक सहा न गया।
हल थे, उनको मैं बेच आया,
खाना खरीदकर ले आया;
उनको ही सबकुछ खिला दिया,
खुद का दुःख कुछ पल भुला दिया।
यह भी तो पड़ा मुझे भारी,
बनियों की करामात सारी;

उसमें कुछ गरल गिराया था,
क्या सितम भूख ने ढाया था !
दोनों थे अब मृत पड़े हुए,
कुछ गम भी नहीं मनाया था;
मैं सीने पर पत्थर रखकर
उनका तर्पण कर आया था।
थाने जा रपट लिखाई थी,
अपनी हालत बतलाई थी;
निर्धन था, और निरक्षर भी,
सो, बस घुड़की ही खाई थी।
मैं भला अकेला क्या करता,
किस- किससे जा- जाकर लड़ता;
सच्चाई है, धनवानों को ही
न्याय सदैव मिला करता।
कहने को अबतक जीता हूँ,
बाहर - भीतर से रीता हूँ;
वे कहते हैं मैं सुनता हूँ,
पर नहीं कभी सिर धुनता हूँ।
मैं नहीं अकेला निर्जन में,
लाखों मुझ जैसे इस वन में;
सबकी मुझ- जैसी गाथा है,
सबका मन यही सुनाता है।
मृत- सा रहकर भी जी लूँगा,
हर तिरस्कार को पी लूँगा;
दुखियों का कौन विधाता है?
बस, यही हमारी गाथा है।
निर्मोह अनल का ताप
आज मुझसे न सहा ज़ाता है;
उड़ती करुणा की भाप,
अचल मुझसे न रहा जाता है।
मलयानिल से रससार पृथक हो
शुष्क हुआ जाता है;
आलोक चर रहा शलभ ,

देख उच्छवास निकल आता है।
जब जीवनदायी रोता है,
संसार सुखी कब होता है?
जो भारत का निर्माता है,
सारे दुःख वह ही पाता है;
अतिचारी मौज मनाते हैं
वे 'कालजयी' कहलाते हैं।
शोणित कृषकों का पी करके,
पौरुष दिखलाते जी भरके।
जबतक होंगें ये दुराचार,
रोयेगी संस्कृति इस प्रकार ।
मानवता पर यह दुष्प्रहार,
लख अब न रहा जाता है।

-आलोक शंकर

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