यह कदम्ब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

तुम को आता देख , बाँसुरी रख,मैं चुप हो जाता ।
वहीं-कहीं पत्तों में छोपकर फिर बाँसुरी बजाता ।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

-सुभद्राकुमारी चौहान

aflatoon[alias on blogger] जी का बहुत बहुत धन्यवाद इस कृती को पूरा करने के लिए ।

टिप्पणियाँ

  1. "तुम को आता देख , बाँसुरी रख,मैं चुप हो जाता,
    वहीं-कहीं पत्तों में छोपकर फिर बाँसुरी बजाता ।"
    यह पंक्तियाँ भी है, १९६७ से याद हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. यह तो बहुत बड़ी कविता है... आपने शायद 50 प्रतिशत ही दिया है...

    जवाब देंहटाएं
  3. यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
    मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
    ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
    किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
    तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
    उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
    वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
    अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता


    सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
    मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
    तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
    एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता
    तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
    व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
    पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
    मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं


    ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
    पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
    नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
    नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी
    मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
    वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
    बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
    मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता


    तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
    ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
    तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
    और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता
    तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
    इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
    यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आदमी बुलबुला है पानी का

पुष्प की अभिलाषा

इतना सा ही है संसार