आदमी बुलबुला है पानी का, और पानी की बहती सतह पर, टूटता भी है, और डूबता भी है, फिर उभरता है, फिर से बहता है, न समंदर निगल सका इसको, वक्त की मौज पर सदा बहता; आदमी बुलबुला है पानी का! -गुलज़ार
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ, चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ। मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पर जावें वीर अनेक । -माखनलाल चतुर्वेदी
सबसे पहले मेरे घर का, अण्डे जैसा था आकार, तब मैं यही समझती थी बस, इतना सा ही है संसार । फिर मेरा घर बना घोसला, सूखे तिनको से तैयार, तब मैं यही समझती बस, इतना सा ही है संसार । फिर मैं निकल गयी साखों पर, हरी भरी थी जो सुकुमार, तब मैं यही समझती बस, इतना सा ही है संसार । आखिर जब में आसमान में, उड़ी दूर तक पंख पसार, तभी समझ में मेरी आया, बहुत बड़ा है यह संसार ! - अनजान
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