इतना सा ही है संसार
सबसे पहले मेरे घर का,
अण्डे जैसा था आकार,
तब मैं यही समझती थी बस,
इतना सा ही है संसार ।
फिर मेरा घर बना घोसला,
सूखे तिनको से तैयार,
तब मैं यही समझती बस,
इतना सा ही है संसार ।
फिर मैं निकल गयी साखों पर,
हरी भरी थी जो सुकुमार,
तब मैं यही समझती बस,
इतना सा ही है संसार ।
- अनजान
अण्डे जैसा था आकार,
तब मैं यही समझती थी बस,
इतना सा ही है संसार ।
फिर मेरा घर बना घोसला,
सूखे तिनको से तैयार,
तब मैं यही समझती बस,
इतना सा ही है संसार ।
फिर मैं निकल गयी साखों पर,
हरी भरी थी जो सुकुमार,
तब मैं यही समझती बस,
इतना सा ही है संसार ।
आखिर जब में आसमान में,
उड़ी दूर तक पंख पसार,
तभी समझ में मेरी आया,
बहुत बड़ा है यह संसार !
यह कविता निरंकार देव 'सेवक' जी की कविता 'चिड़िया का गीत' से है।
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