मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग
रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में
मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू
मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग
मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
-निदा फ़ाज़ली
ईन रच्नाओं को comments की जरूरत कहां है.. बस बार पढ्ते रहो.. हर बार उतनी ही ताजा, नये अर्थ के साथ..शुक्रिया
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना परोसने के लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंजो बात की ख़ुदा की क़सम लाजवाब की
जवाब देंहटाएंवाह वा, वाह वा, वाह वा, वाह वा